चित्तोड़ दुर्ग पर अकबर कि सेना से युद्ध में गोली जयमल की जांघ में लगी थी।
तब वीर शिरोमणी कल्लाजी राठौड़ ने काका जयमल जी की पीड़ा को दूर करने के किये अपनी पीठ पर बैठा कर युद्ध करने का फैसला किया।
शूरवीर राठौड़ रणबंकेश
श्री कल्लाजी ने 60 साल के काका जयमल जी को अपनी पीठ पर बैठा कर उनके और अपने दोनों हाथों में भवानी(तलवार)
धारण कर मुगलों सेना पर भूखे शेर की तरह किले के विशाल कपाट खोल आक्रमण कर दिया।
श्री कल्लाजी व वीरवर जयमल जी का चतुर्भुज रूप रणभूमि में
कही भी गुजरता वही को शत्रु सेना का मैदान साफ हो जाता। यह देख
शत्रु सेना मैदान छोड़ भाग जाती थी।इस भंयकर युद्ध में सैकडों घाव लगने पर राव जयमल का शरीर निश्चेष्ट हो गया।
एक मुगल ने पीछें से तलवार चला कर वीर
कल्ला का सिर काट दिया।अब बिना सिर के कल्लाजी का कंबध (कमधज) घोर संग्राम करते हुए दोनों हाथों से
तलवार लिये मुगलों की फौज को चीरता जा रहे थे | भला इस कंबध को रोकने की शक्ति किसमें थी।
कल्ला का कंबध योग व देवी शक्ति और गुरु
आशीर्वाद से आधुनिक मंगलवाड़, कुराबड़,
बम्बोरा जगत और जयसमन्द होता हुआ
रनेला अपनी रानी कृष्णकांता के पास जा पहुंचा।
वही राजकुमारी कृष्णकांता ने कल्लाजी का कबंध को गोद में लेकर चिता में विराजमान होकर
सती हो गयी|
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